gg

gg

Saturday 30 November 2013

कहीं पे धुप की चादर .....

कहीं पे धुप के चादर बिछा के बैठ गए,
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए|


          जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा,
          बहुत से लोग वहीँ छटपटा के बैठ गए|


खड़े हुए थे आलावो की आंच लाने को,
सब अपनी अपनी हवेली जला के बैठ गए|


          दुकानदार तो मेले में लूट गये यारो,
          तमाशबीन दुकान लगा के बैठ गए|


लहू लुहान नजारों का जिक्र आया तो, 
शरीफ लोग उठ दूर जा के बैठ गए|


          ये सोच कर कि दुर्ख्तों में छाँव होती है,
          यहाँ बाबुल के साथ में आके बैठ गए|


No comments:

Post a Comment